बात उन दिनों की है, जब हम दिल्ली के खुले आसमान में उड़ रहे थे, न हमें गिरने का डर था, न ऊँची उड़ान की आशा। समय का समुद्र हमें अपने साथ बहाकर ले जा रहा था। जुलाई 2012, जिंदगी का वो सबसे अच्छा समय.. जब हमने दिल्ली में पोस्ट ग्रेजुएट इन जर्नलिज्म कोर्स में दाखिला लिया था। विवेक और मैं (नीरज) मुजफ्फरनगर से, विकास बरेली से, अवनी बिहार से और इरफान गोरखपुर से आया था... पत्रकार बनने का सपना लेकर। कैंटीन की चाय, लाइब्रेरी की गुफ्तगू और सराय जुलैना के रेस्टोरेंट्स के बीच कब एक साल बीत गया, कुछ पता ही नहीं चला।
गाँव के भट्ठों पर खेलते-खेलते कब पत्रकार बनने का सपना देखा.. और किस्मत भी अच्छी थी कि मेरा और विवेक का दाखिला एक साथ हो गया। घरवालों की नजर में हम पढ़ाकू बन गये थे। मेरे और विवेक के बाबाजी को कभी जर्नलिज्म कहना ही नहीं आया। शायद उन्हें लगता था कि जर्नलिज्म कोई बड़ा कोर्स होगा... जितना कठिन नाम है उतना ही कठिन कोर्स भी होगा।
एक साल का कोर्स कब पूरा हुआ, कुछ नहीं पता। सोचा था कि जब कोर्स पूरा होगा तो हाथों में माइक होगा, कोई 'कैमरा ऑन!' की आवाज लगाएगा और हम टीवी पर आने शुरू हो जाएँगे। हमारी मम्मियाँ पूरे गाँव को इकट्ठा कर कहेंगी कि हमारा छोरा टीवी पर समाचार सुना रहा है। मम्मियों का टीवी पर हमें देखने का सपना भी अधूरा रह गया। दाखिले से पहले कॉलेज का 100 प्रतिशत प्लेसमेंट का दावा फुस्स निकला। नौकरी नहीं मिली तो लगा कि समाधि ले लें, अपने घर के देवता पित्तर बन जाएँ... लेकिन वो भी कहाँ आसान था।